चंद्रशेखर : एक जीवंत संवेदना के प्रतीक
चंद्रशेखर : एक जीवंत संवेदना के प्रतीक

(पुण्यतिथि पर एक स्मृतिचित्र)
सियासत की दुनिया में जब शब्द खोखले और वादे खोखलेपन से भर जाएँ, तब चंद्रशेखर जैसे लोग इतिहास के पन्नों में नहीं, दिलों में जिंदा रहते हैं। वे नेता नहीं, एक विचार थे—जो सत्ता को नहीं, सेवा को प्राथमिकता देते थे। जो इंसान को उसके दुख, उसकी पीड़ा और संघर्ष में पहचानते थे। उनकी राजनीति में पद नहीं, पसीना बोलता था। सत्ता नहीं, संवेदना चलती थी।
राजनीति के इस तपस्वी ने हमेशा मनुष्यता को अपने आचरण में सबसे ऊपर रखा। उनके जीवन की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे अपने आलोचकों से भी मानवीय व्यवहार करते थे। उनके लिए संबंध, पद या विचारधारा से नहीं, आत्मीयता से बनते थे।
सादगी और आत्मीयता का पर्याय
चंद्रशेखर ने कभी सादगी का मुखौटा नहीं पहना, वह उनकी आत्मा का स्वभाव था। गाँव से आए कार्यकर्ता को चाय पिलाने के बाद उसे खुद गाड़ी से उसके घर तक छोड़ना और फिर उसकी टूटी-फूटी चारपाई पर बैठकर गुड़ खाना, उनके लिए सामान्य बात थी। क्योंकि वो इंसान को उसकी सामाजिक हैसियत से नहीं, जीवन की साझी तकलीफों से जोड़ कर देखते थे। यही आत्मीयता उन्हें भीड़ से अलग करती थी।
नेता नहीं, साथ चलने वाले साथी
वे अस्पतालों में बीमार साथियों की तीमारदारी करते, झोले में चंदा लेकर इलाज कराते, बिना भेदभाव के सबके काम आते। सत्ता में रहकर भी उन्होंने सहयोगियों की पीड़ा को देखा, समझा और महसूस किया। किसी ने विरोध किया हो या आलोचना—चंद्रशेखर ने कभी द्वेष नहीं पाला। वे सिर्फ जोड़ते थे—सम्बंधों को, संवेदनाओं को और भारत के उस ताने-बाने को, जो अब धीरे-धीरे टूटता जा रहा है।
जेल में भी करुणा की लौ जलाए रखी
आपातकाल के दौरान जब वे पटियाला जेल में थे, तब एक युवा बंदी राजू की जमानत के लिए उन्होंने प्रयास किया। अपनी जेल डायरी में उन्होंने उसका दर्द शब्दों में दर्ज किया—जिसमें सिर्फ एक अपराधी की कहानी नहीं थी, बल्कि उस टूटते समाज की करुण कथा थी, जो संवेदनशील हाथों की तलाश में है। चंद्रशेखर ने सिर्फ पैसे की मदद नहीं की, बल्कि उस युवा को सम्मान और सहारा दिया, जिसकी दुनिया में कोई ठिकाना नहीं था।
राजनीतिक पराजय नहीं, नैतिक विजय
1984 में चुनाव हारने के बाद भी उनका मनोबल नहीं टूटा। उन्होंने देश के कोने-कोने में रचनात्मक कार्य किए—जेपी स्मारक, शहीद स्मारक, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, सामाजिक अध्ययन केंद्र और भारत यात्रा केंद्र की स्थापना की। कभी इसे अपने नाम का विस्तार नहीं बनने दिया। कभी किसी ट्रस्ट या संस्था में परिवार के लोगों को नहीं घुसाया। उनके लिए राजनीति व्यक्तिगत उन्नति का साधन नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व का संकल्प थी।
उनकी ईमानदारी पर भरोसा करते थे लोग
एक बार जब उनके पास फ्लाइट के टिकट के लिए भी पैसे नहीं थे, इंडियन एयरलाइंस के अधिकारी ने खुद टिकट उपलब्ध कराया। सिर्फ इसलिए कि ‘आप चुनाव हार गए होंगे, लेकिन भरोसा नहीं’। यह भरोसा कोई पद नहीं देता, यह जीवन की ईमानदारी से अर्जित होता है।
संस्था नहीं, एक जीवंत प्रेरणा
उन्होंने जो ट्रस्ट बनाए, उसकी संपत्ति को निजी नहीं बनाया। मृत्यु से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री को पत्र भेजा कि इन सभी संस्थाओं को सरकार अपने अधीन ले ले। क्योंकि यह जनता की पूंजी से बनी हैं, तो जनता की होनी चाहिए। कौन सा नेता आज ऐसा सोचता है?
पुनः स्मरण की सार्थकता
आज चंद्रशेखर की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना एक औपचारिकता नहीं, एक दायित्व है। जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता, ईमानदारी, संवेदना और सेवा के मूल्य लुप्त हो रहे हों, तब चंद्रशेखर की जीवन-गाथा एक मार्गदर्शक की तरह है। वे एक वाक्य नहीं, एक दृष्टिकोण हैं। सत्ता के शिखर पर बैठकर भी उन्होंने सिर ऊँचा नहीं किया, बल्कि ज़मीन पर झुककर हर जरूरतमंद का हाथ थामा।
उनकी स्मृति हमें बताती है कि एक अच्छा इंसान होना, एक सफल राजनेता होने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
विनम्र श्रद्धांजलि।
चंद्रशेखर – सिर्फ नाम नहीं, विचार की लौ हैं।
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